जानिए हेपेटाइटिस सी की खोज की कहानी, जिसके लिए तीन वैज्ञानिकों हार्वे जे ऑल्टर, माइकल ह्यूटन और चार्ल्स एम राइस को नोबेल पुरस्कार मिलेगा
साल 2०2० के पहले नोबेल पुरस्कार का ऐलान हो गया है। इस बार मेडिकल के क्षेत्र का नोबेल संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों हार्वे जे ऑल्टर, माइकल ह्यूटन और चार्ल्स एम राइस को दिया जाएगा। इसमें ऑल्टर और राइस अमेरिकी हैं, जबकि ह्यूटन ब्रिटेन से हैं। तीनों को यह पुरस्कार हेपेटाइटिस सी की खोज के लिए दिया जाएगा। ऑल्टर और ह्यूटन ने जहां वायरस को लेकर खोज की तो वहीं राइस ने इसका इलाज ढूंढा। आज हम हेपेटाइटिस सी की खोज बताने जा रहे हैं…
198० के दशक का आखिरी दौर था। अमेरिका के लीवर स्पेशलिस्ट नेजम अफदल के यहां लैरी नाम का एक मरीज आता है। लैरी की उम्र करीब 3० साल है। लैरी को शराब और सिगरेट पीने की आदत थी। उसे लीवर की गंभीर बीमारी थी। जांच में पता चला कि उसे वायरस इंफेक्शन हुआ है, जो न तो हेपेटाइटिस-ए था और न ही हेपेटाइटिस-बी। अंदाजा लगाकर उसका इलाज किया गया। लैरी ने दम तोड़ दिया। इस तरह का केस केवल नेजम अफदल के यहां ही नहीं आया था। कई डॉक्टरों के पास ऐसे ही मामले आ रहे थे।
लीवर से जुड़ी यह बीमारी की सबसे पहले पहचान हार्वे जे ऑल्टर ने की थी। जिसे उन्होंने- नान ए, नान बी हेपेटाइटिस (न तो हेपेटाइटिस ए और न ही बी) – नाम दिया था। लेकिन, सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अभी तक इस वायरस को देखा नहीं गया था।
यह वह दौर था जब अमेरिका में एचआईवी अपने चरम पर फैल रहा था। शहरों के सिटी हॉस्पिटल ऐसे मरीजों से भरे थे और सभी म् रने का इंतजार कर रहे थे। सभी डॉक्टरों का ध्यान एचआईवी पर ही था। ऐसे समय में डॉक्टरों के एक दो समूह थे जो नए वायरस की पड़ताल में जुटे थे। ऐसा ही एक समूह लॉस एंजिल्स में माइकल ह्यूटन की आगुवाई में जुटा था। आमतौर पर जब कोई नया वायरस का पता चलता है तो उसे माइक्रोस्कोप से खून को कांच की प्लेट पर रखकर देखा जाता है। लेकिन, इस वायरस को माइक्रोस्कोप से पता लगाना मुश्किल था।
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नए वायरस को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यही थी कि इसको अभी तक पहचाना नहीं जा सका था। ऐसे में माइकल ह्यूटन ने अनुमान लगाया कि अगर कोई इंसान इस वायरस की चपेट में आता है तो उसका शरीर प्रतिक्रिया जरूर करेगा। वायरस से लड़ने के लिए शरीर में एंटीबॉडी जरूर बनेंगी।
माइकल ने इस नए वायरस को एक चिंपांजी में लगाया। करीब छह साल बाद उन्होंने उस चिंपांजी के कोशिकाओं के करोड़ों क्लोन्स तैयार कर मतलब की पूरा जेनेटिक मैटीरियल निकालकर प्लेट में रख दिया। इसके बाद उन्होंने एक इसी वायरस से ग्रसित एक इंसान के क्लोन्स के साथ स्कàीनिंग की। इस दौरान एक क्लोन दोनों में मैच कर गया। यह था नया वायरस। साल था 1989 और नाम रखा गया हेपेटाइटिस-सी। यह वायरस जीका वायरस की फैमिली का है।
हेपेटाइटिस-सी कैसे प्रभावित करता है?
इस बीमारी के पहले चरण को एक्यूट हेपेटाइटिस-सी कहते हैं। इस दौरान बहुत से लोगों में लक्षण नहीं सामने आते हैं। 15 से 4०% लोगों में इतने समय में ही वायरस शरीर से साफ हो जाता है। बाकी में यह वायरस जटिल बीमारी का रूप ले लेता है। इनमें से एक तिहाई लोगों में 2० साल के बाद लीवर में जख्म हो जाते हैं और मौत हो जाती है। जबकि एक तिहाई में इसी काम में 3० सालों का वक्त लगता है। जबकि बाकी में यह पूरी जिंदगी बना रहता है और ज्यादा परेशान नहीं करता।
कैसे होता है हेपेटाइटिस-सी?
- संक्रमित व्यक्ति का खून चढ़ने से।
- संक्रमित सुई के इस्तेमाल से।
- मां से उसकी संतान में।
- यौन संबंधों से।
- टैटू बनवाने और पियर्सिंग करवाने से।
हेपेटाइटिस-सी के लक्षण
- पीलिया (आंख और त्वचा का पीला पड़ना)।
- यूरिन का गहरे रंग का होना।
- थकान महसूस होना।
- भूख में कमी और पेट दर्द।
- बुखार और पल्टी आना।