जानवरों का दूध हम इंसानों के लिए बना ही नहीं था, नहीं मानो तो पढ़ लो…
मौजूदा समय में ऐसा लगने लगा है कि डेयरी मिल्क को मार्केट में कम्पटीशन मिल सकता है। दूध के अल्टरनेटिव के रूप में बाजार में सोया और बादाम से तैयार होने वाले दूध मौजूद है और उसकी मांग भी तेजी से बढ़ रही है। दूध के ये दूसरे विकल्प वीगन-फ्रेंडली होने के साथ ही उन लोगों के लिए भी फायदेमंद हैं जिन्हें दूध से एलर्जी है।
अल्टरनेटिव मिल्क या वैकल्पिक दूध का का चलन बढ़ना जानवरों के दूध से इंसान के हजारों साल पुराने रिश्ते में नया मोड़ है। हजारों साल पुराने इस रिश्ते में कई उतार चढ़ाव आए और अब ऐसा लगने लगा कि जानवरों का दूध इंसानों के लिए ही बना है। हालांकि, अगर आप थोड़ा गौर से सोचें तो दूध पीने के लिए बहुत ही अजीब चीज है। यह एक ऐसा लिक्विड है जो हर एक स्तनपायी के शरीर में उनके बच्चों को शुरुआती दिनों में पालने के लिए तैयार होता है। किसी भी दूसरे जानवर का दूध हम इंसानों के लिए बिल्कुल भी नहीं है।
सबसे पहले एक घटना बताते हैं कि साल 2000 में चीन ने एक कैंपेन लॉन्च किया था। इसका मकसद लोगों को ज्यादा से ज्यादा डेयरी प्रोडक्स का इस्तेमाल करने के लिए जागरूक करना और उनके अंदर (खासकर बुजुर्ग) से उस डर को निकालना था कि दूध और डेयरी प्रोडक्ट उनको बीमार करते हैं। अभी भी कई चीनी बुजुर्ग दूध या उसके प्रोडक्ट के सेवन से बीमार हो जाते हैं। उनको दूध से एलर्जी नहीं है बल्कि वे शायद ज्यादा नेचुरल इंसान हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने दूध का सेवन लगातार कभी नहीं किया। इसलिए दूध उनको स्वस्थ करने के बजाय बीमार ज्यादा करता है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि जानवरों का दूध इंसानों के लिए कभी था ही नहीं। अब आप सोच रहे होंगे कि आप कैसे दूध को पचा लेते हैं। तो सबसे पहले जानवरों के दूध और इंसानों के कनेक्शन पर बिल्कुल शुरुआत से समझते हैं…
इंसानी इतिहास के अगर तीन लाख साल पुराने इतिहास के हिसाब से देखें तो इंसानों द्वारा दूध के सेवन की आदत नई ही कही जाएगी। आज से करीब 10 हजार साल पहले शायद ही कोई दूध पीता हो। हालांकि, इस दौरान कभी-कभार किसी दुर्लभ अवसर दूध के इस्तेमाल के साक्ष्य मिलते हैं। दूध को रोज के भोजन के रूप में सबसे पहले पश्चिमी यूरोप में गायों और दूसरे जानवरों को पालने वाले किसानों ने लाना शुरू किया। आजकल दूध पीना दुनियाभर में कई जगहों पर आम बात है, लेकिन यह भी सच है कि अभी भी कई जगहें ऐसी हैं, जहां रोज दूध पीना लगभग अनसुनी बात है।
दूध के पीछे बॉयोलॉजिकल कारण समझते हैं
दूध में एक टाइप का शुगर होता है जिसे हम लैक्टोज कहते हैं, जो कि फल और दूसरी मीठी चीजों में पाई जाने वाली शुगर से बिल्कुल अलग है। जब हम बच्चे होते हैं तो हमारा शरीर एक स्पेशल एंजाइम लैक्टेज बनाता है। यह एंजाइम लैक्टेज ही मां के दूध में पाए जाने वाले लैक्टोज को पचाता है। जब मां का दूध पीना बंद हो जाता है तो शरीर में लैक्टेज एंजाइम बनना भी बंद हो जाता है। इसलिए बिना लैक्टेज के हम दूध में पाए जाने वाले लैक्टोज को पचा नहीं पाते हैं। बदले में दूध से पेट फूलना, ऐंठन और यहां तक की डायरिया जैसी बीमारियां हो सकती हैं। यह बिल्कुल नेचुरल प्रोसेस है। यह जानवरों के साथ भी होता है। जब जानवर बड़े होते हैं तो उनके शरीर में लैक्टेज एंजाइम बनना बंद हो जाता है।
फिर हुआ इंसानों का इवोल्यूशन यानि विकास
अब सवाल यह है कि आज के लोग कैसे दूध को पचा पाते हैं? इसके पीछे इंसानों के विकासवाद की थ्योरी है। जब दूध का इस्तेमाल शुरू हुआ तो कुछ लोगों ने दूध पीने की आदत लगातार बरकरार रखी। मां का दूध छूटा तो जानवरों का दूध पीते रहे। जिससे वयस्क होने के बाद भी उनमें लैक्टेज बनता रहा और वे बिना किसी साइड इफेक्ट के दूध को पचाते रहे। यह इंसान के डीएनए में हुए म्यूटेशन का खेल था, जिससे उनके शरीर में लैक्टेज एंजाइम बनाने की एक्टिविटी में बदलाव आया।
पेरिस के ह्यूमनकाइंड म्यूजियम के असिस्टेंट प्रोफेसर लॉर सेगुरेल के मुताबिक सबसे पहले यह काबिलियत 5000 साल पहले दक्षिणी यूरोप के लोगों में आई। करीब 3000 साल पहले मध्य यूरोप के लोग भी शरीर में लैक्टेज एंजाइम को लगातार बनाए रखने में कामयाब हुए। सेगुरेल ने ‘साइंस ऑफ लैक्टेज पर्सिस्टेंस’ रिव्यू भी लिखा है। मौजूदा समय में दुनिया की अधिकतर आबादी में लैक्टेज एंजाइम को लगातार बनाए रखने का विकास हो चुका है। उत्तरी यूरोप में तो 90% लोगों में यह खासियत है। एशिया, अफ्रीका और मिडिल ईस्ट में भी कई जगहों पर यही स्थिति है, लेकिन अभी भी एसी आबादी हैं जहां पर लोगों के शरीर में लैक्टेज का उत्पादन बड़े होने पर बरकरार नहीं रह पाता है। साउथ अमेरिका, अफ्रीका और एशिया में कई जगहों पर यह हालात हैं।
दूध की तुलना में उससे बने उत्पादों में कम होता है लैक्टोज
दूध को बटर, योगर्ट, क्रीम और पनीर में बदलने से उसमें लैक्टोज की मात्रा कम हो जाती है। हार्ड चीज जैसे कि चेडर इसमें दूध की तुलना में 10% कम लैक्टोज होता है। हैवी क्रीम औ बटर में भी लैक्टोज बहुत कम होता है।
आज से करीब 7200 साल पहले पनीर बनाने की शुरुआत हुई
लोगों का लगता है कि पनीर की खोज को बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है, लेकिन ऐसा नहीं है। सितंबर 2018 में पुरातत्वविदों ने क्रोएशिया में मिट्टी के बर्तनों में फैटी एसिड का पता लगाया था। उन्होंने बताया था कि इस बर्तनों में दूध को फाड़कर उसका पानी अलग किया जाता था, जो कि पनीर बनाने की दिशा में अहम कदम था। अगर यह बात पूरी तरह सही है तो दक्षिणी यूरोप में आज से करीब 7200 साल पहले पनीर बनाया जाता था। इसी तरह से कुछ 6000 साल पुराने साक्ष्य भी यूरोप में पाए गए हैं।
अमेरिका और यूरोप में घट रही तो एशिया में बढ़ रही दूध की खपत
आईएफसीएन (इंटरनेशनल फार्म कम्पैरिजन नेटवर्क) डेयरी रिसर्च नेटवर्क के आंकड़ों के अनुसार 1998 से लगातार दूध और दूध के उत्पादों में बढ़ोतरी हो रही है। 2017 में दुनियाभर में 86.4 करोड़ टन दूध का उत्पादन हुआ था। आईएफसीएन के मुताबिक 2030 तक 35% की बढ़ोतरी के साथ 116.8 करोड़ टन दूध का उत्पादन होगा। 2010 के एक अध्ययन से पता चलता है कि अमेरिका और यूरोप में पिछले कुछ दशकों से दूध के इस्तेमाल में कमी आई है। यहां पर अल्टरनेटिव मिल्क डेयरी मिल्क को वाकई में टक्कर देने की पोजिसन में आ रहा है। हालांकि, अमेरिका में दूध में आई इस गिरावट को विकासशील देशों की बढ़ती मांग ने पूरा किया है, खास तौर पर एशिया में।